नई दिल्ली:
दिल्ली की एक अदालत ने आज दिल्ली के उपराज्यपाल वी.के. सक्सेना द्वारा सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के खिलाफ दायर मानहानि के मामले में सजा की अवधि पर अपना आदेश एक जुलाई तक सुरक्षित रख लिया। यह मामला उस समय का है जब वे गुजरात में एक गैर सरकारी संगठन के प्रमुख थे।
मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट राघव शर्मा ने यह देखते हुए आदेश सुरक्षित रख लिया कि दिल्ली विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) ने पीड़ित प्रभाव रिपोर्ट (वीआईआर) प्रस्तुत की है।
यह रिपोर्ट अभियुक्त की दोषसिद्धि के बाद पीड़ित को हुई हानि की मात्रा का आकलन करने के लिए तैयार की जाती है।
इस अपराध के लिए अधिकतम दो वर्ष तक का साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।
इससे पहले 24 मई को अदालत ने कहा था कि मेधा पाटकर द्वारा वी.के. सक्सेना को “कायर” कहना और हवाला लेनदेन में उनकी संलिप्तता का आरोप लगाना न केवल मानहानिकारक था, बल्कि उनके बारे में नकारात्मक धारणा को भड़काने के लिए भी गढ़ा गया था।
साथ ही, यह आरोप कि शिकायतकर्ता गुजरात के लोगों और उनके संसाधनों को विदेशी हितों के लिए “गिरवी” रख रहा है, उसकी ईमानदारी और सार्वजनिक सेवा पर सीधा हमला है।
सजा पर बहस 30 मई को पूरी हो गयी थी।
मेधा पाटकर और वी.के. सक्सेना के बीच वर्ष 2000 से कानूनी लड़ाई चल रही है, जब मेधा पाटकर ने उनके और नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के खिलाफ विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए वी.के. सक्सेना के खिलाफ मुकदमा दायर किया था।
वी.के. सक्सेना, जो उस समय अहमदाबाद स्थित एनजीओ ‘काउंसिल फॉर सिविल लिबर्टीज’ के प्रमुख थे, ने भी पाटकर के खिलाफ एक टीवी चैनल पर उनके खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने और मानहानिकारक प्रेस बयान जारी करने के लिए दो मामले दर्ज कराए थे।
(शीर्षक को छोड़कर, इस कहानी को एनडीटीवी स्टाफ द्वारा संपादित नहीं किया गया है और एक सिंडिकेटेड फीड से प्रकाशित किया गया है।)